लेखनी कविता -कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए - ग़ालिब
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए / ग़ालिब
कहते तो हो तुम सब कि बुत-ए-ग़ालिया-मू आए
यक मरतबा घबरा के कहो कोई कि वो आए
हूँ कशमकश-ए-नज़ा में हाँ जज़्ब-ए-मोहब्बत
कुछ कह न सकूँ पर वो मिरे पूछने को आए
है साइक़ा-ओ-शोला-ओ-सीमाब का आलम
आना ही समझ में मिरी आता नहीं गो आए
ज़ाहिर है कि घबरा के न भागेंगे नकीरें
हां मुंह से मगर बादा-ए-दोशीना की बो आए
जललाद से डरते हैं न वाइज़ से झगड़ते
हम समझे हुए हैं उसे जिस भेस में जो आए
हां अहल-ए-तलब कौन सुने ताना-ए-ना-याफ़त
देखा कि वह मिलता नहीं अपने ही को खो आए
अपना नहीं वह शेवह कि आराम से बैठें
उस दर पह नहीं बार तो क`बे ही को हो आए
की हम-नफ़सों ने असर-ए गिरयह में तक़रीर
अचछे रहे आप उस से मगर मुझ को डुबो आए
उस अनजुमन-ए नाज़ की कया बात है ग़ालिब
हम भी गए वां और तिरी तक़दीर को रो आए